जैसा की आप सभी को अवगत होगा , इस्लामिक संगठन तालिबान ने अफगानिस्तान पर पूर्ण रूप से कब्ज़ा कर लिया है , इसका उद्देश्य है अफगानिस्तान में इस्लामिक कट्टरवाद को बढ़ावा देना
तालिबान ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के पश्तून इलाकों में वायदा किया था कि अगर वे एक बार सत्ता आते हैं तो सुरक्षा और शांति कायम करेंगे। वे इस्लाम के साधारण शरिया कानून को लागू करेंगे। हालाँकि कुछ ही समय में तालिबान लोगों के लिए सिरदर्द साबित हुआ। शरिया कानून के तहत महिलाओं पर कई तरह की कड़ी पाबंदियां लगा दी गईं थी। सजा देने के वीभत्स तरीकों के कारण अफगानी समाज में इसका विरोध होने लगा.
भारत पर इसका असर
तालिबान का इस्लामिक आतंकवादी संगठनों के साथ संबंध बना रहा है और आगे भी रहेगा, जो हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा है। वे पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के साथ मिलकर एलओसी, लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश, सियाचीन जैसे क्षेत्र में अशांति पैदा कर सकते हैं। चीन-पाकिस्तान मिलकर भारत के खिलाफ तालिबान पर कोई न कोई कार्रवाई करने के लिए दबाव बना सकता है।
इसलिए अब भारत की विदेश नीति साफ करनी होगी। दोहा में तालिबान की अमेरिका से बाचतीत होती रही है। हाल में ही दोहा में जर्मनी, नार्वे, तर्की से बातचीत हुई, थी भारत को भी मौका मिला, लेकिन ज्यादा प्राथमिकता नहीं दी गई। इसलिए अब भारत को भी तालिबान के साथ वार्ता करनी चाहिए। इसके लिए पॉलिसी फ्रेमवर्क तैयार करना चाहिए।
अफगानिस्तान की सवा तीन करोड़ की आबादी में पश्तून, उज्बेक और ताजिक जातियां है। पश्तून की आबादी 40 फीसदी से ज्यादा है। तालिबान की असली ताकत यही जाति है। इनकी फितरत आपस में लड़ने की रही है। इसलिए हम ‘वेट एंड वाच’ पॉलिसी को भी अपना सकते हैं। इस समय तालिबान में एकता है लेकिन सत्ता हस्तांतरण के समय इनमें फूट पड़ने की आशंका है।
जल्दी ही कई देश तालिबान को मान्यता दे देंगे। चीन, पाकिस्तान की कोशिश होगी कि वे भारत को अफगानिस्तान से अलग-थलग रखें। इसलिए यह भारत पर निर्भर करता है कि वह किस तरह अब अपना पक्ष रखता है। भारत के सामने एक बड़ी चुनौती अफगानिस्तान से बड़ी संख्या में आने वाले शरणार्थी को लेकर भी होगी। भारत सरकार इस मुद्दे को कैसे संभालेगी, यह देखना महत्वपूर्ण होगा।